kanchan singla

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एक मकान था कहीं...!!

एक मकान था कहीं...
ईंट, पत्थर और गारे से चिना गया था,,
जीवन भर की कमाई से,,
खून की एक एक बूंद बनाया गया था...!!
फिर आया एक दिन वो....
जब किसी ने उस मकान को जला दिया,,
जीवन की खातिर, परिवार की खातिर,,
बीती आधी रात को...
उसे अपने उस घर से जाना पड़ा था,,
कितना मजबूर था , बेबस था,,
कोई सुनता कहां था, पुकार उसकी,,
लेकर शरण पत्थर के कोने की,,
अनजान शहर में था...!!
ना कमाई का जरिया था, ना जीवन का,,
अब उसको मकान की फिक्र कहां...??
पेट की आग बुझानी थी,,
फिर से गट्ठर को ढो़ना था,,
फिर से एक नया मकान बनाना था...!!
जीवन बेबस सा यूंही चलता गया,,
दिन कटते गए, रातें गुजरती गई,,
बदला जमाना, बदले लोग,,
लेकिन बदली नही तो बस वही,,,
दिलों में बसी नफ़रत की आग...!!
एक दिन जाने कहां से फिर से,,
उन जख्मों का एक टुकड़ा छिल गया,,
एक छोटी सी परत कहीं से उखड़ गई,,
घाव जो भरा भी ना था, फिर से हरा हो गया...!!
सत्ता के लालच में हर गुनाह, गुनहगारों का छुपा दिया गया
सबूत छिपा दिए, आवाज़ दबा दी,,
हर आंसू न्याय की उम्मीद में सूख गया...!!
जाने कहां से फिर से एक लहर उठी,,
ज़ख्म का एक हिस्सा कहीं से छिल गया,,
उस जख्म को फिर से ढ़कने की कोशिश की गई,,
एकता का बिगुल बजा, हर कोशिश हार गई,,
सच, झूठ की परतों को हटा कर बाहर आ गया,,
आंखें नम गई, अनगिनत दिल रो पड़े,,
फिर से न्याय की गुहार उठी,,
मकान की दीवारें उम्मीद से भर उठी,,
शायद फिर से लौट आएं वो और,,
फिर से उस ईंट, पत्थर के मकान को घर बना दे,,
फिर से खिल जाएं वो सड़के, वो गलियां,,
वो रास्ते जो जोहते बाट...!!
आज भी उन आखों को उम्मीद है,,
जब वो लौटेगा....
क्या उसका वो मकान उसे पहचान लेगा...??



#प्रतियोगिता दिनांक 23 मार्च २०२२
# कॉपीराइट_लेखिका - कंचन सिंगला
# मकान

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7 Comments

Punam verma

24-Mar-2022 09:51 PM

Very nice

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Seema Priyadarshini sahay

24-Mar-2022 06:04 PM

बहुत खूबसूरत

Reply

Renu

24-Mar-2022 11:41 AM

बहुत ही बेहतरीन रचना

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